गायन वादन एवं नृत्य इन तीनों कलाओं के समावेश को संगीतज्ञों ने संगीत कहा है। संगीत एक ललित कला है। जिसे अन्य ललित कलाओं में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। संगीत मन के भावों को प्रकट करने का सबसे अच्छा साधन माना जाता है। संगीत कला मुख्य रूप से प्रयोगात्मक कला है। जिसका उद्देश्य मन के भावों को बड़ी सहजता और मधुर ढंग से परिमार्जित कर उसका उसकी अन्तरात्मा से साक्षात्कार कराना है। आदिकाल से ही संगीत मनुष्य से जुड़ा रहा है। वैदिक काल तक आते-आते यह मानव जीवन को ईश्वर से मिलाने का सशक्त माध्यम बना, सारे वैदिक मन्त्र और ऋचाएं सस्वर उच्चारित होती थी, इसका प्रमाण हमारे चारों वेदों में से एक वेद सामवेद से प्राप्त होता है जिसकी प्रत्येक ऋचा और मन्त्र गेय है। धीरे-धीरे समय के परिवर्तन के साथ संगीत में भी परिवर्तन होता गया। मार्गी और देसी संगीत के अन्तर्गत गायन होने लगा, मार्गी संगीत वह संगीत था जिसका सम्बन्ध मोक्ष प्राप्ति से था तथा जो मुख्यतः भक्ति प्रधान होता था, देसी संगीत वह संगीत था जो जन रूचि के अनुकूल गाया जाता था। इसके बाद सामगान प्रचलन में आया तथा सामगान से जातिगान की उत्पत्ति हुई, जाती गान के दस लक्षण कहे गये है। इसके पश्चात जातिगान से राग की उत्पत्ति हुई, राग के भी दस लक्षण माने गए है और नो विभिन्न जातियां मानी गई है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में राग का महत्वपूर्ण स्थान है। सम्पूर्ण शास्त्रीय संगीत की इमारत इसी राग रूपी नींव पर खड़ी है। प्रायः कई रागों में कुछ स्वर कम प्रयोग होते है तथा कुछ अधिक प्रयोग किये जाते है। किन्तु कुछ स्वर ऐसे भी होते है जो राग में पूर्ण रूप से वर्जित होते है। यह वर्जित स्वर आरोह तथा अवरोह दोनों में हो सकते है। षडज को छोड़कर राग में सभी स्वर वर्जित हो सकते है।
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