रक्तरंजित इतिहास के उस हिंस्र और क्रूर अध्याय को क्यों तो याद करें और कैसे उसे भूल जाएँ! सदियों-सदियों के बाद देश में अवतरित होनेवाली आजादी हर हिंदुस्तानी दिल में धड़कती रही थी। इस उमगती विरासत को राजनीतिक शक्तियों ने विभाजित कर देश का नया भूगोल और इतिहास बना दिया। नई सरहदें खींच दीं। सरहदों के आर-पार दौड़ती लाशों से भरी रेलगाडिय़ाँ स्टेशनों के बाहर अँधेरों में खड़ी कर दी जाती रहीं। हजारों-हजारों की भीड़ वाले काफिले अपने ही कदमों में गुम हो बेनाम खामोशियों की धूल में जा मिले। फिर भी हर हिंदुस्तानी के दिल में धड़कता यह अहसास था कि विभाजन के अँधेरों में उपजी 'आजादी' एक पवित्र शब्द है-हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और बरकतों का प्रतीक। बँटवारे के बाद बना पाकिस्तान उस त्रासदी से पहले जिनके लिए अपना प्यारा हिंदुस्तान था; वे लोग, अपने ही आजाद मुल्क में जिनके कदम विस्थापित शरणार्थियों के भेस में पड़े, यह उपन्यास उनउखड़े और दर-ब-दर लोगों की रूहों का अक्स है। यही वह समय था जब भारत की आजादी ने एक और कहानी लिखना शुरू की, जिसका मकसद अपने औपनिवेशिक अतीत को धोना था। 'रियासतों का विलय' शुरू हो रहा था। इस उपन्यास का ताल्लुक इतिहास के इस अध्याय से भी है। और सबसे नजदीकी सम्बन्ध इस कृति का उस शख्सियत से है जिसे हम कृष्णा सोबती के नाम से जानते हैं। बँटवारे के दौरान अपने जन्म स्थान गुजरात और लाहौर को यह कहकर कि 'याद रखना, हम यहाँ रह गए हैं', वे दिल्ली पहुँची ही थीं कि यहाँ के गुजरात ने उन्हें आवाज दी और अपनी स्मृतियों को सहेजते-सँभालते वे अपनी पहली नौकरी करने सिरोही पहुँच गईं, जहाँ उनमें अपने स्वतंत्र देश का नागरिक होने का अहसास जगा; व्यक्ति की खुद्दारी और आत्मसम्मान को जाँचने-परखने के लिए सामन्ती ताम-झाम का एक बड़ा फलक मिला। और मिले सिरोही रियासत के दत
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