"वाबस्ता एक एहसास है जो वक्त और हालात के फ़ासलों को भुलाकर उम्रभर, और शायद उसके बाद भी सिलसिले कायम रखता है। ऐसे ही चन्द जज़्बातो को शायरी की जुबां में दर्ज करने की कोशिश है "वाबस्ता"। तेरी याद आई और आती चली गयी शबे-तन्हाई को हसीं बनाती चली गयी तू करीब था तो हर खुशी पे इख़्तियार था फिर हर खुशी दूर से मुस्कुराती चली गयी तुम मेरी मोहब्बत को भी महफूज़ ना रख सके मैंने तुम्हारे दिये ज़ख्मों की भी परवरिश की है चिराग-ए-दिल ने अजब सी ख़्वाहिशें सजा रखी हैं और ज़माने ने हक़ीक़त की आंधियां चला रखीं हैं हो सके जो मुमकिन तो रोशनी को चले आना हमने उम्मीदों की हथेली से लौ बचा रखी है"
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