जीवमात्र क्या ढूंढता है? आनंद ढूंढता है, लेकिन घड़ीभर भी आनंद नहीं मिल पाता विवाह समारोह में जाएँ या नाटक में जाएँ, लेकिन वापिस फिर दुःख आ जाता है जिस सुख के बाद दुःख आए, उसे सुख ही कैसे कहेंगे? वह तो मूर्छा का आनंद कहलाता है सुख तो परमानेन्ट होता है यह तो टेम्परेरी सुख हैं और बल्कि कल्पित हैं, माना हुआ है हर एक आत्मा क्या ढूंढता है? हमेशा के लिए सुख, शाश्वत सुख ढूंढता है वह ‘इसमें से मिलेगा, इसमें से मिलेगा यह ले लूँ, ऐसा करूँ, बंगला बनाऊ तो सुख आएगा, गाड़ी ले लूँ तो सुख मिलेगा’, ऐसे करता रहता है लेकिन कुछ भी नहीं मिलता बल्कि और अधिक जंजालों में फँस जाता है सुख खुद के अंदर ही है, आत्मा में ही है अत: जब आत्मा प्राप्त करता है, तब ही सनातन (सुख) ही प्राप्त होगा
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