जीवन की गहन व्यथा की ओर संकेत करते हुए मस्तिष्क न जाने किस ओर बढ़ने का प्रयास करता है। जहाँ तक दृष्टि जाती है वहाँ तक अंधकार के सिवाय कुछ दिखाई नहीं पड़ता। व्यष्टि से लेकर समष्टि तक सब अंधकारमय प्रतीत होता है। किस राह पर बढ़े, पाँव कंपकंपाते है। शरीर में सिहरन-सी दौड़ पड़ती हैं। नसों में रक्त इस प्रकार शीतल पड़ जाता है मानों शरीर में रक्त नहीं अपितु बर्फ दौड रही हो। बुध्दि इस प्रकार विचलित हो पड़ती है जैसे कण्ठ़ में कोई वस्तु अटक गई हो। व्यथा की कथा जैसे अनन्त हो जाती है। हृदय की करूण ध्वनि जब मस्तिष्क तक पहुँचती है तब वह केवल उस बारे में ही सोचता है, कुछ और नहीं। जीवन में अनेक त्रुटियाँ अवश्य ही हो जाती है। कुछ त्रुटियाँ तो ऐसी होती है जिनके परिणाम के बारे में मनुष्य को आभास होता है, परन्तु वे त्रुटियाँ अवश्य ही हो जाती है, पर जब वे घटित हो जाती है तब पश्चाताप की भावना उत्पन्न होती है।