व्यंग्य की सुरती से जीवन की भांग तक है तरह- तरह के डांस!
सुरती कभी खाई नहीं। भांग कभी चढी नहीं। चढ गई ज़ुबान पर एक धार जो कब अपने आप व्यंग्य बनती चली गई, इसकी छानबीन का काम मेरा नहीं। अपन तो बचपन में सभी की नकल करते, परसाई जी की गुड की चाय पीते- पढते समझने लगे थोडा बहुत कि 'मार कटारी मर जाना, ये अंखिया किसी से मिलाना ना!' हिमाकत देखिये कि 'इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर' पढते हुए और उसके बाद शरद जोशी के नवभारत टाइम्स में छपते 'प्रतिदिन' कॉलम का सबसे पहले पारायण करते हुए व्यंग्य को थोडा बहुत समझने लगे। थोडा- थोडा लिखने लगे तो मजा आने लगा। बोलने में भी व्यंग्य की एक छौंक लगने लग गई। साथी- सहयोगी वाह- वाह कर उठते तो अपने को अपनी कलम और घुटने में बस रहे दिमाग पर बडा फख्र होने लगता।
लेकिन, जल्द ही अपनी समझदानी में अकल का साबुन घुस गया और आंखों में अपना झाग भरकर बता गया कि मोहतरमा, व्यंग्य एक बेहद गम्भीर विधा है, लकडीवाली मलाई बरफ नहीं कि लकडी पकडे चूसते हुए खाते चले गए और उस मलाई- बरफ के रंग से रंगीन हो आए अपने लाल- पीले होठ और जीभ को देखकर तबीयत को हरा- भरा करते रहे, बल्कि यह जीवन के सत्व से निकली बडी महीन विधा है। बडी खतरनाक और बडी असरकारी, बिहारी के दोहे की तरह- 'देखन में छोटन लगे, घाव करे गम्भीर!'
कहानियां लिखती हूं। तो जिन कहानियों के मर्म बडे बेधक होते, उनको व्यंग्य की शैली में लिखने लगी। इसी तरह नाटक भी। व्यंग्य लेख तो लिख ही रही थी। तेज़ी आई, जब अपना ब्लॉग बनाया और उसमें लिखने लगी। 2009 की बात है। तब ब्लॉग लेखन का सिलसिला नया- नया था। हिंदी में टाइपिंग की उतनी सुविधा आई नहीं थी कम्प्यूटर पर। फिर भी, 'मेरी साडी है दुधारी' करती लिखने लगी। मैंने अपने ब्लॉग का नाम ही रखा- 'छम्मकछल्लो कहिस।' इसी शीर्षक से इस ब्लॉग में से स्त्री- विमर्श के व्यंग्य आलेखों का एक संग्रह छपा 2013 में। chhammakchhallokahis.blogspot.com ब्लॉग पर मैं व्यंग्य पोस्ट करती। मेरे ब्लॉग को नोटिस में लिया गया और रवीश कुमार ने भी अपना एक आलेख इस ब्लॉग पर लिखा। 2010 में ब्लॉग पर 'लाडली मीडिया अवार्ड' मेरे ही ब्लॉग से शुरु हुआ और ब्लॉग पर पहला 'लाडली मीडिया अवार्ड' मेरे खाते में आया।
कहानियों का अपना विविध संसार है। शुक्र कि मेरी अन्य कहानियों की तरह मेरी व्यंग्य कहानियां भी शुक्र- शुक्र होती रहीं, शनि की छाया उनपर नहीं पडीं। सभी को उनमें मंगल, बुध, गुरु मिलते रहे। सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कथाकार मुकेश वर्मा ने एक बहुत अच्छा और बेहद महत्वपूर्ण आलेख लिखा मेरी व्यंग्य कथा- 'पेट्स पुराण वाया शील संरक्षण' पर।
फिर तो 'जीवन से न हार जीनेवाले!' लगा कि व्यंग्य कथाएं लिखी जा सकती हैं और अच्छे से लिखी जा सकती हैं। इसतरह से तैयार हुआ है व्यंग्य कथाओं का यह संग्रह- 'बॉस डांस'। इसमें चौदह कहानियां हैं, जो समय- समय पर अलग- अलग पत्र- पत्रिकाओं में छपती रही हैं।
अब यह संग्रह आपके सामने है। इसके पहले व्यंग्य लेखों का संग्रह आया 'छम्मकछल्लो कहिस' शीर्षक से। व्यंग्य नाटक 'प्रेग्नेंट फादर' हिंदी में और मैथिली में 'मदति करू माई' (मदद करो माता) आ चुके हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि 'बॉस डांस' संग्रह में सम्मिलित सभी चौदह कहानियां आपको पसंद आएंगी। इस संग्रह को छापने में इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड के डॉ. सजीव कुमार ने अपना अप्रतिम सहयोग देकर व्यंग्य कथा- लेखन की ओर भी अपना ध्यान दिया है। इसके लिए मैं उनकी और इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड की पूरी टीम की आभारी हूं। 'बॉस डांस' पर आपकी राय की प्रतीक्षा रहेगी। क्या समझे बॉस!
विभा रानी
मुंबई
सुरती कभी खाई नहीं। भांग कभी चढी नहीं। चढ गई ज़ुबान पर एक धार जो कब अपने आप व्यंग्य बनती चली गई, इसकी छानबीन का काम मेरा नहीं। अपन तो बचपन में सभी की नकल करते, परसाई जी की गुड की चाय पीते- पढते समझने लगे थोडा बहुत कि 'मार कटारी मर जाना, ये अंखिया किसी से मिलाना ना!' हिमाकत देखिये कि 'इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर' पढते हुए और उसके बाद शरद जोशी के नवभारत टाइम्स में छपते 'प्रतिदिन' कॉलम का सबसे पहले पारायण करते हुए व्यंग्य को थोडा बहुत समझने लगे। थोडा- थोडा लिखने लगे तो मजा आने लगा। बोलने में भी व्यंग्य की एक छौंक लगने लग गई। साथी- सहयोगी वाह- वाह कर उठते तो अपने को अपनी कलम और घुटने में बस रहे दिमाग पर बडा फख्र होने लगता।
लेकिन, जल्द ही अपनी समझदानी में अकल का साबुन घुस गया और आंखों में अपना झाग भरकर बता गया कि मोहतरमा, व्यंग्य एक बेहद गम्भीर विधा है, लकडीवाली मलाई बरफ नहीं कि लकडी पकडे चूसते हुए खाते चले गए और उस मलाई- बरफ के रंग से रंगीन हो आए अपने लाल- पीले होठ और जीभ को देखकर तबीयत को हरा- भरा करते रहे, बल्कि यह जीवन के सत्व से निकली बडी महीन विधा है। बडी खतरनाक और बडी असरकारी, बिहारी के दोहे की तरह- 'देखन में छोटन लगे, घाव करे गम्भीर!'
कहानियां लिखती हूं। तो जिन कहानियों के मर्म बडे बेधक होते, उनको व्यंग्य की शैली में लिखने लगी। इसी तरह नाटक भी। व्यंग्य लेख तो लिख ही रही थी। तेज़ी आई, जब अपना ब्लॉग बनाया और उसमें लिखने लगी। 2009 की बात है। तब ब्लॉग लेखन का सिलसिला नया- नया था। हिंदी में टाइपिंग की उतनी सुविधा आई नहीं थी कम्प्यूटर पर। फिर भी, 'मेरी साडी है दुधारी' करती लिखने लगी। मैंने अपने ब्लॉग का नाम ही रखा- 'छम्मकछल्लो कहिस।' इसी शीर्षक से इस ब्लॉग में से स्त्री- विमर्श के व्यंग्य आलेखों का एक संग्रह छपा 2013 में। chhammakchhallokahis.blogspot.com ब्लॉग पर मैं व्यंग्य पोस्ट करती। मेरे ब्लॉग को नोटिस में लिया गया और रवीश कुमार ने भी अपना एक आलेख इस ब्लॉग पर लिखा। 2010 में ब्लॉग पर 'लाडली मीडिया अवार्ड' मेरे ही ब्लॉग से शुरु हुआ और ब्लॉग पर पहला 'लाडली मीडिया अवार्ड' मेरे खाते में आया।
कहानियों का अपना विविध संसार है। शुक्र कि मेरी अन्य कहानियों की तरह मेरी व्यंग्य कहानियां भी शुक्र- शुक्र होती रहीं, शनि की छाया उनपर नहीं पडीं। सभी को उनमें मंगल, बुध, गुरु मिलते रहे। सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कथाकार मुकेश वर्मा ने एक बहुत अच्छा और बेहद महत्वपूर्ण आलेख लिखा मेरी व्यंग्य कथा- 'पेट्स पुराण वाया शील संरक्षण' पर।
फिर तो 'जीवन से न हार जीनेवाले!' लगा कि व्यंग्य कथाएं लिखी जा सकती हैं और अच्छे से लिखी जा सकती हैं। इसतरह से तैयार हुआ है व्यंग्य कथाओं का यह संग्रह- 'बॉस डांस'। इसमें चौदह कहानियां हैं, जो समय- समय पर अलग- अलग पत्र- पत्रिकाओं में छपती रही हैं।
अब यह संग्रह आपके सामने है। इसके पहले व्यंग्य लेखों का संग्रह आया 'छम्मकछल्लो कहिस' शीर्षक से। व्यंग्य नाटक 'प्रेग्नेंट फादर' हिंदी में और मैथिली में 'मदति करू माई' (मदद करो माता) आ चुके हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि 'बॉस डांस' संग्रह में सम्मिलित सभी चौदह कहानियां आपको पसंद आएंगी। इस संग्रह को छापने में इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड के डॉ. सजीव कुमार ने अपना अप्रतिम सहयोग देकर व्यंग्य कथा- लेखन की ओर भी अपना ध्यान दिया है। इसके लिए मैं उनकी और इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड की पूरी टीम की आभारी हूं। 'बॉस डांस' पर आपकी राय की प्रतीक्षा रहेगी। क्या समझे बॉस!
विभा रानी
मुंबई
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