'समय देखेगा'
उस कक्ष की कल्पना कीजिए जिसमें कोई बेहतरीन गायक तन्मय श्रोताओं के सम्मुख आलाप लेने ही वाला हो।
सब होगा। उसके साथ उम्दा साजिंदे भी होंगे तो आजमाए हुए साश भी होंगे। सुनने वालों का श्रव्य-विवेक और रस जिज्ञासु मानस किसी तारक दल की सी झिलमिलाता भी होगा। वहाँ शर्रे-शर्रे में संगीत को ले जाने के लिए आतुर साउंड सिस्टम भी होगा।
लेकिन बस एक ही चीश उस क्षण वहाँ नहीं होगी-आवाज़!
पिनड्राॅप साइलेंस... अर्थात आवाज़ रहित चुप्पी। यही खामोशी निर्जन 'शून्य' की अवधरणा है। ये शून्य, ये सन्नाटा, ये रिक्तता जितनी वीतरागी होगी उतनी ही मादक आवाज़ की संभावनाएं जन्म लेंगी।
मैं तेजी से कविता की दुनिया में घुमड़ते-छाते गहरे कवि डाॅ. संजीव कुमार को इसी संभावना से जुड़ता हुआ देख रहा हूँ।
'शून्य' से जुड़ा आगाश एक ऐसा भरोसा है जो काल की सीमा लाँघता है, रस की सीमा लाँघता है और मंथन के दायरे भी पार कर जाता है। यदि कोई कवि बीहड़ में गुम गया है तो उसके पास भूल-भुलैया से निकल आने का विश्वस्त साधन है-आवाज़। और आवाश का टेक-आॅफ प्वाॅइंट है सन्नाटा।
संजीव जी इस शून्य से निकल कर जहां जाएंगे, आप देखिएगा कि भीड़ का एक हुजूम उनके साथ होगा। इस विश्वास का सबसे बड़ा संबल उनकी रचना धर्मिता का वो बारीक महीन तंतु है जो मात्रा द्रष्यव्य नहीं, श्रव्य नहीं, बल्कि स्थूल है। कारवां औपचारिक नहीं होते, वो उन्मत्त होते हैं और के तरकश के भाव पगे तूणीर उन्हें अपने होने की बौद्विक आश्वस्ति देते हैं। वो इसलिए हैं क्योंकि वो हैं।
मैं इस शानदार उद्गम-उद्यम प्रवाह के लिए उन्हें शुभकामनाएं देते हुए पीछे हटता हूं ताकि आपके साथ-साथ मैं भी उन जल रश्मियों की छलकन को खुली आंखों देख सवूंफ, जिसे आप देखेंगे, समय देखेगा।
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