"रिश्तों की अहमियत" डॉ. मीरा सिंह द्वारा लिखित कहानी संग्रह है। जिसमें लेखिका द्वारा आधुनिक सामाजिक संबंधों को उजागर कर रिश्तों की अहमियत पर प्रकाश डाला गया है।
इसे नारी सशक्तिकरण का द्योतक भी कह सकते हैं। इस कहानी संग्रह में "रिश्तों की अहमियत", "रिश्तों की अहमियत की सुनवाई", "मायके की अहमियत", "घुटन", "शुभा", "गृहिणी", "रिसीवर", "बनिहारिंन", "मंथन" "तनाव" आदि कहानियों की पात्राएँ नारी विवशता की त्रिशंकु स्थिति को झेल रही हैं।
इन कहानियों में लेखिका ने न केवल उनकी विवशताओं को उजागर किया है बल्कि उनकी विवशता का हल "रिश्तों की अहमियत की सुनवाई" कहानी की पात्रा सौम्या सोनी के प्रगतिशील विचार के माध्यम से उजागर किया है। जिसका समर्थन रिपोर्ट लिखने वाले दरोगा जी भी करते हैं।
"आज यह नारी की बहुत बड़ी समस्या व विवशता है कि शादी के बाद वह जड़ से तो उखड़ ही जाती है, विषम परिस्थितियां ना उसे घर का छोडती हैं ना घाट का। चारों ओर से लाचार उसका मन, घुटन अनुभव करने के लिए विवश होता है। सब कुछ सहने के लिए मजबूर होता है। यह परिस्थियाँ सदियों से आ रही हैं और अगर नारी जागरूक नहीं हुई तो सदियों तक चलेंगी।"
दरोगा जी के उपरोक्त कथन सौम्या सोनी के विचारों का समर्थन करता है।
"सच में बहुत ही कलयुग आ गया है साहब! आज रिश्तों की अहमियत खत्म होती जा रही है। जो मुझे मानसिक रूप से प्रताडित करती है।"
दरोगा जी के उपरोक्त कथन नारी विवशता की त्रिशंकु स्थिति को उजागर करता है और साथ ही साथ इस समस्या के समाधान हेतु समाज के पुरुष वर्ग के मन में प्रेरणा जगाने हेतु पहल भी करता है।
लेखिका ने, "ममता", "मानवता", "सुहाना सफर" व "बनिहारिंन" आदि कहानियों में, वर्ग संबंधी समस्याओं को उजागर करने का सफल प्रयास किया है और रमेश जी, ठकुराइन की बहू, ममता व उसके माता-पिता के प्रगतिशील विचारों के माध्यम से समाज को स्वस्थ बनाने और उनको मानवीय हक दिलाने हेतु समाधान ढूँढ़ने की भरपूर कोशिश कर, समाज को मानव-मूल्य से भी अवगत करवाया है।"चुनाव के रंग", "बनिहारिंन", "गाँव बदल रहे हैं" आदि कहानियों में ग्रामीण व राजनीतिक समस्याओं को उजागर कर, समाज को दर्पण दिखाया है।निःसदेह ये कहानियाँ पुरुष और नारी के संबंधों को यथार्थ के धरातल पर उकेरती हैं और वर्तमान परिस्थितियों के बीच उन्हें नए रूप में परिभाषित करती हैं।वस्तुतः ये मानवीय संबंधों के यथार्थ की नई कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ नई कहानी के शिल्प-सौन्दर्य से परिपूर्ण हैं और पठनीय भी हैं। इनका कथानक जिज्ञासा, कौतूहल और मनोरंजन को आत्मसात किए हुए है। संवादों में गहराई के साथ-साथ सरलता है। कहीं भी बनावटीपन नहीं नजर आता है। ये जीवन के यथार्थ को अभिव्यक्त करने में सफल हैं।कहानियों में पात्रों की भीड़ भी नहीं है। इनके पात्रों में सजीवता व यथार्थता है। इनके पात्र आम आदमी की कमजोरियों से यथावत जुड़े हैं। यहीं कारण है कि ये अपने देश, समाज, परिवार और उनसे जुड़े नैतिक-अनैतिक पक्षों को असल जिंदगी की तरह ही अभिव्यक्त करते हैं।
इसका कारण है कि कहानी लेखिका ने अपने अनुभव-शिल्प के द्वारा इन्हें तराशा है।उनकी भाषा शैली पर पूरा ध्यान दिया है इसीलिए लेखिका अपने उद्देश्य को इंगित करने में आद्योपांत सफल रही हैं। कुल मिलाकर ये कहानियाँ लेखिका के यथार्थ परिवेश से उद्भूत हैं और नारी-पुरुष संबंधों की हकीकत को दर्शाती हैं।
निःसन्देह, ये मानव संबंधों के यथार्थ को अभिव्यक्त करने वाली नारी सशक्तिकरण की कहानियाँ हैं।शिल्प की दृष्टि से भी ये कहानियाँ पठनीय हैं और संग्रह के शीर्षक को भी सार्थकता प्रदान करती हैं।मुझे विश्वास है कि हिंदी जगत में इस कहानी संग्रह को यथेष्ठ सम्मान प्राप्त होगा। कहानी लेखिका को बहुत-बहुत बधाई।
इसे नारी सशक्तिकरण का द्योतक भी कह सकते हैं। इस कहानी संग्रह में "रिश्तों की अहमियत", "रिश्तों की अहमियत की सुनवाई", "मायके की अहमियत", "घुटन", "शुभा", "गृहिणी", "रिसीवर", "बनिहारिंन", "मंथन" "तनाव" आदि कहानियों की पात्राएँ नारी विवशता की त्रिशंकु स्थिति को झेल रही हैं।
इन कहानियों में लेखिका ने न केवल उनकी विवशताओं को उजागर किया है बल्कि उनकी विवशता का हल "रिश्तों की अहमियत की सुनवाई" कहानी की पात्रा सौम्या सोनी के प्रगतिशील विचार के माध्यम से उजागर किया है। जिसका समर्थन रिपोर्ट लिखने वाले दरोगा जी भी करते हैं।
"आज यह नारी की बहुत बड़ी समस्या व विवशता है कि शादी के बाद वह जड़ से तो उखड़ ही जाती है, विषम परिस्थितियां ना उसे घर का छोडती हैं ना घाट का। चारों ओर से लाचार उसका मन, घुटन अनुभव करने के लिए विवश होता है। सब कुछ सहने के लिए मजबूर होता है। यह परिस्थियाँ सदियों से आ रही हैं और अगर नारी जागरूक नहीं हुई तो सदियों तक चलेंगी।"
दरोगा जी के उपरोक्त कथन सौम्या सोनी के विचारों का समर्थन करता है।
"सच में बहुत ही कलयुग आ गया है साहब! आज रिश्तों की अहमियत खत्म होती जा रही है। जो मुझे मानसिक रूप से प्रताडित करती है।"
दरोगा जी के उपरोक्त कथन नारी विवशता की त्रिशंकु स्थिति को उजागर करता है और साथ ही साथ इस समस्या के समाधान हेतु समाज के पुरुष वर्ग के मन में प्रेरणा जगाने हेतु पहल भी करता है।
लेखिका ने, "ममता", "मानवता", "सुहाना सफर" व "बनिहारिंन" आदि कहानियों में, वर्ग संबंधी समस्याओं को उजागर करने का सफल प्रयास किया है और रमेश जी, ठकुराइन की बहू, ममता व उसके माता-पिता के प्रगतिशील विचारों के माध्यम से समाज को स्वस्थ बनाने और उनको मानवीय हक दिलाने हेतु समाधान ढूँढ़ने की भरपूर कोशिश कर, समाज को मानव-मूल्य से भी अवगत करवाया है।"चुनाव के रंग", "बनिहारिंन", "गाँव बदल रहे हैं" आदि कहानियों में ग्रामीण व राजनीतिक समस्याओं को उजागर कर, समाज को दर्पण दिखाया है।निःसदेह ये कहानियाँ पुरुष और नारी के संबंधों को यथार्थ के धरातल पर उकेरती हैं और वर्तमान परिस्थितियों के बीच उन्हें नए रूप में परिभाषित करती हैं।वस्तुतः ये मानवीय संबंधों के यथार्थ की नई कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ नई कहानी के शिल्प-सौन्दर्य से परिपूर्ण हैं और पठनीय भी हैं। इनका कथानक जिज्ञासा, कौतूहल और मनोरंजन को आत्मसात किए हुए है। संवादों में गहराई के साथ-साथ सरलता है। कहीं भी बनावटीपन नहीं नजर आता है। ये जीवन के यथार्थ को अभिव्यक्त करने में सफल हैं।कहानियों में पात्रों की भीड़ भी नहीं है। इनके पात्रों में सजीवता व यथार्थता है। इनके पात्र आम आदमी की कमजोरियों से यथावत जुड़े हैं। यहीं कारण है कि ये अपने देश, समाज, परिवार और उनसे जुड़े नैतिक-अनैतिक पक्षों को असल जिंदगी की तरह ही अभिव्यक्त करते हैं।
इसका कारण है कि कहानी लेखिका ने अपने अनुभव-शिल्प के द्वारा इन्हें तराशा है।उनकी भाषा शैली पर पूरा ध्यान दिया है इसीलिए लेखिका अपने उद्देश्य को इंगित करने में आद्योपांत सफल रही हैं। कुल मिलाकर ये कहानियाँ लेखिका के यथार्थ परिवेश से उद्भूत हैं और नारी-पुरुष संबंधों की हकीकत को दर्शाती हैं।
निःसन्देह, ये मानव संबंधों के यथार्थ को अभिव्यक्त करने वाली नारी सशक्तिकरण की कहानियाँ हैं।शिल्प की दृष्टि से भी ये कहानियाँ पठनीय हैं और संग्रह के शीर्षक को भी सार्थकता प्रदान करती हैं।मुझे विश्वास है कि हिंदी जगत में इस कहानी संग्रह को यथेष्ठ सम्मान प्राप्त होगा। कहानी लेखिका को बहुत-बहुत बधाई।
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