कहानी एक स्त्री और उसके चौदह साल के बेटे के बीच उपजे अबोले और उसके बाद के संघर्ष की है। एक स्त्री के लिए अपने मन का जीवन चुनने की आज़ादी और आत्मनिर्भरता पुरुष और समाज के लिए इक्कीसवीं सदी में भी चुनौती है। शहरी जीवन के मानवीय सम्बन्धों की जटिलता में जहाँ एक ओर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में स्त्री की इच्छा और अनिच्छा का प्रश्न है वहीं नैतिकता-अनैतिकता के ढाँचों को तहस-नहस करता बेचैन शहरी जीवन है। सही और ग़लत को किस तरह परिभाषित किया जाए या परिभाषित करने की कोई ज़रूरत भी है? वर्षों के आत्मसंयम के बाद एक उठता तूफ़ान है। अपनी इच्छाओं के पीछे भागते लोगों द्वारा अपने ही लोगों को दी गयी पीड़ाएँ हैं। शहरी जीवन के अकेले कोने और जकड़न है और बदहवासी की हद तक सिर्फ़ प्यार के पीछे भागते लोग हैं। इन्हीं सब बातों का साक्षी बनता एक चौदह साल का बच्चा कभी अकेला महसूस करता है तो कभी छला हुआ। उसकी आँखों में सवाल हैं जिन्हें वह कभी नहीं पूछता और मजबूर हो जाता है अपनी उम्र से कहीं अधिक समझदार हो जाने पर। जो कुछ भी बड़ों की दुनिया में हो रहा है, बच्चे उसे देख रहे हैं। वे देख रहे हैं और समझने की कोशिश कर रहे हैं। उनके सामने स्वार्थ और धोखों की ऐसी दुनिया खुल रही है जिससे वे बचना चाहते हैं, लेकिन सीधे जा टकराते हैं। जैसे सामूहिक रूप से वे बच्चे अपने बड़ों से पूछ रहे हों कि जब आप अपना ख़याल नहीं रख पाते, ख़ुद को नहीं संभाल पाते तो हमें क्या संभालेंगे। युवा कथाकार और स्क्रीन राइटर प्रदीप अवस्थी की पहली ऑडियो सीरीज.
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